बेटी का ग़म: एक माँ की आवाज़
"बेटियाँ सिर्फ घर की सदस्य नहीं होतीं, वो उस घर की आत्मा होती हैं।"
एक माँ होने के नाते, मेरी दुनिया मेरी बेटी के इर्द-गिर्द घूमती थी। उसकी हँसी, उसका चलना, उसकी बातें — सब कुछ मेरे जीवन को रोशनी से भर देता था। पर समय का पहिया घूमता गया, और एक दिन वो भी आया जब वो इस घर से विदा हो गई।
जब वो पैदा हुई थी, पूरे परिवार में खामोशी थी। सबने कहा, "अरे, बेटा नहीं हुआ?" लेकिन मेरे लिए, वो मेरी दुनिया थी। जब पहली बार उसने मेरी उंगली थामी थी, तब मैंने ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, मैं उसे कभी कमजोर नहीं पड़ने दूंगी।
समाज की सोच
कितनी अजीब बात है ना, जहाँ माँ बेटी को भगवान की देन मानती है, वहीं समाज उसे बोझ समझता है। हर बार जब कोई कहता, "बेटी को इतना पढ़ा रहे हो?" मेरा दिल तड़प उठता था। क्या बेटियों के सपने नहीं होते? क्या उन्हें उड़ने का हक़ नहीं है?
मेरी बेटी तेज़ थी, आत्मनिर्भर थी और अपने सपनों की दुनिया बसाना चाहती थी। लेकिन समाज की बंदिशें हमेशा रास्ते में आईं। फिर भी उसने हार नहीं मानी। उसने हर बार खुद को साबित किया।
उसकी विदाई
शादी का दिन आया। वो सज-धज के मेरे सामने खड़ी थी। उसकी आँखों में चमक थी, पर आँसू भी। मैंने जब उसका हाथ पकड़ा, तो लगा जैसे मेरी रूह का एक हिस्सा अलग हो रहा हो। विदाई के बाद घर सूना हो गया। उसकी हँसी की गूंज अब दीवारों से टकरा कर लौट आती है।
"बेटी की विदाई सिर्फ एक रस्म नहीं, माँ के दिल का सबसे बड़ा घाव होता है।"
लोग कहते हैं, बेटी तो पराया धन होती है। पर क्या दिल से कोई कभी पराया हो सकता है? हर रोज़ उसकी यादें ताजा होती हैं। उसका कमरा अब भी वैसा ही है, जैसे वो अभी-अभी वहाँ से गई हो।
माँ का ग़म
ग़म सिर्फ इस बात का नहीं कि वो अब इस घर में नहीं रहती, ग़म इस बात का है कि मैंने उसे कितना कुछ कहना चाहा, पर कभी कह न सकी। हर माँ के दिल में ये ग़म छुपा होता है, जो वो कभी शब्दों में नहीं कह पाती।
आज जब मैं दूसरी बेटियों को देखती हूँ, तो मेरी दुआ होती है कि उन्हें वो प्यार मिले जिसकी वो हक़दार हैं। उन्हें कभी ये महसूस न हो कि वो बोझ हैं।
बेटियाँ रौशनी हैं
अगर हम सच में समाज को आगे बढ़ाना चाहते हैं, तो हमें बेटियों को आगे बढ़ने का पूरा मौका देना होगा। उन्हें प्यार, समर्थन और आत्मविश्वास देना होगा। माँ-बाप की जिम्मेदारी सिर्फ शादी तक नहीं, उनकी उड़ान तक होती है।
"जिस घर में बेटी होती है, वहाँ खुदा रहमत बन के आता है।"
मेरा ग़म सिर्फ मेरा नहीं, हर उस माँ का है जिसकी बेटी दूर है, या जिसे समाज ने बेटी होने का दर्द दिया। चलिए, मिलकर इस सोच को बदलते हैं।
निष्कर्ष
बेटियाँ अनमोल होती हैं। उनका मूल्य किसी बोझ या परायापन से नहीं आँका जा सकता। हर माँ की तरह मेरा दिल भी चाहता है कि मेरी बेटी खुश रहे, उड़ान भरे और जहां भी हो, अपना नाम रोशन करे।
ग़म तो रहेगा, पर उस ग़म में भी एक उम्मीद है — कि एक दिन समाज बेटियों को उसी नज़र से देखेगा जैसे एक माँ देखती है।
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